डा. हिमानी पाण्डे, ( बीएएमएस) नैनीताल – आयुर्वेद शास्त्र में ऐसी कई व्याधियां हैं, जो केवल नाममात्र से उल्लेखित हैं। शायद संहिताओं के लिखे जाने के समय में इन व्याधियों का अभिभाव कम होने की वजह से इन व्याधियों का वर्णन पूर्णरूप से नहीं हो पाया। लेकिन नए दौर में इनका अभिभाव बढ़ गया है जिसका मुख्य कारण है आधुनिक जीवनशैली। ऐसी ही एक महत्वपूर्ण व्याधि है – धमनी प्रतिचय। ;धमनी -Artery प्रतिचय – जिसका अर्थ है प्रतिस्थान (Artery) में होने वाला चय। भले ही धमनी – प्रतिचय को आयुर्वेद के वैद्य वर्ग ने आधुनिक शास़्त्र में वर्णित Atherosclerosis (धमनियों में रुकावट) इस संज्ञा से तुलना की है, फिर भी हमारे आयुर्वेदिक आर्ष ग्रन्थों का विश्लेषण करने पर धमनी – प्रतिचय की व्याप्ति इससे काफी ज्यादा है, यह बात उजागर होती है। धमनी प्रतिचय के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाली तथा सबसे अधिक मात्रा में जनसमूह में पाई जाने वाली व्याधि हृद्रोग (Heart Disease) और तुलना में कम पाई जाने वाली व्याधियाँ जैसे सिराकौटिल्य (Vericose Vein) सिरागत रक्त ग्रन्थि (Deep Vein Thrombosis) है। जिनमें सिराकौटिल्यादि व्याधियों के लिए घातक दुष्परिणाम रहित औषधि एवं शस्त्रकर्म को छोड़कर कोई विशेष चिकित्सा आधुनिक चिकित्सा शास्त्र में नहीं मिलती। ऐसी व्याधियों के लिए आयुर्वेदिक चिकित्सा एक महत्वपूर्ण योगदान साबित हो सकती है। धमनियों की दीवारों पर कोलेस्टरॉल के चकत्ते बनने के कारण खून के बहाव में रुकावट आ जाती है. चकत्तों के टूटने के कारण बनने वाले थ्ाक्कों से धमनियाें में भारी रुकावट पैदा होती है. ऐथरोस्क्लरोसिस में अक्सर कोई लक्षण तब तक दिखाई नहीं देते हैं, जब तक चकत्ते टूट नहीं जाते या वह इतने बड़े न हो जाएं कि उनके कारण खून के बहाव में रुकावट आ जाए.
आयुर्वेद के अनुसार व्याधि के उत्पन्न करने में मुख्य कारण दोष (वात, पित्त, कफ) और दूष्य की विड्डति माना जाता है। इस प्रकार धमनी प्रतिचय को उत्पन्न करने में मुख्य व्याधि घटक हैं –
दोष – कफप्रधान वातादि दोष
दूष्य – रस (Plasma), रक्त, मांस, मेद (Fat)
स्रोतस (Channels)- रस का वहन करने वाला रसवह स्रोतस
उसी प्रकार मांसवह स्रोतस, मेदावह स्रोतस, रक्तवह स्रोतस
अधिष्ठान – धमनी, सिरा
आयुर्वेद में इस गंभीर बीमारी का उपचार संभव है. आइये जानते हैं , क्या है इसका उपचार और निदान आयुर्वेद में :
आहार –
- कफप्रकोपक हेतु
- मधुर रस प्रधान – मिठाई के पदार्थ, चीनी, गुड़
- शीत गुण युक्त – शीतपेय, आईसक्रीम
- गुरू गुण युक्त – बे्रड, बिस्किट
- स्निग्ध गुण युक्त – डालडा, भैंस का दूध
- अभिव्यन्दि – दही, क्रीम, चीज, भैंस का दूध, सैंधव को छोड़कर इतर लवण प्रकार गो मांस।
- मधुर रस प्रधान – मिठाई के पदार्थ, चीनी, गुड़
- मांसवह स्रोतस दुष्टिकर
- अभिष्यन्दी परार्थ
- गुरू पदार्थ अधिक मात्रा में अधिक काल तक सेवन।
- स्थूल पदार्थ
- मेदोवह स्रोतस दुष्टिकर
- स्निग्ध पदार्थ
- गुरू पदार्थ अधिक मात्रा में अधिक काल तक सेवन।
- शीत पदार्थ
- रक्तवह स्रोतस दुष्टिकर – अधिक नमकीन, क्षार, अम्ल, कटु पदार्थाें के सेवन से, कुलथी, माष (उड़द), सेम और तिल-तेल के निरन्तर सेवन से, मूली तथा हरित वर्गोक्त पदार्थों के निरन्तर सेवन करने से, दही, दही का पानी, सुरा इनके सेवन से, मात्रा, देश, काल, स्निग्ध तथा गुरू पदार्थाें को खाकर दिन में सोने, अधिक भोजन करने, अधिक क्रोध, धूप का सेवन करने, वमन के वेग को रोकने, श्रम, अजीर्ण, अध्यशन (भोजन करने के कुछ समय बाद पुनः भोजन करने), अत्यधिक और दूषित मद्य के पीने से और शरद ऋतु में स्वभाव से भी रक्त दूषित हो जाता है।
- विरूद्धाशन ( दो विरूद्ध पदार्थों का एक साथ सेवन करना )जैसे-
- दूध और फल एकत्र सेवन करना – फ्रूट सलाड, मिल्क शेक्स।
- दूध और लवण एकत्र सेवन करना
- दूध और मछली का एकत्र सेवन करना
- अत्यधिक चिन्ता करना
विहार – - अव्यायाम – व्यायाम के अभाव से धमनियों में मेद संचित होने लगती है जिसके परिणाम स्वरूप धमनी प्रतिचय होता है।
- दिन में सोना (निद्रा करना) – दिन में सोने से कफ की वृद्वी होकर शरीर में स्निग्धता हो जाती है। जिससे कफ की वृद्वी होकर मेद की भी वृद्वी हो जाती है।और धमनी प्रतिचय की उत्पत्ति होती है।
- अध्यशन – अर्थात् पहले किया हुआ भोजन के पचने से पहले ही पुनः भोजन करना, इससे आहार रस की विकृति हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप विकृत रक्त रस तथा विकृत मेद की उत्पत्ति से धमनी प्रतिचय उत्पन्न होता है।
- अधिक धूम्रपान – धूम्रपान का दुष्परिणाम शरीर में दो प्रकार से होता है-
1. Active धूम्रपान -जिसमें व्यक्ति खुद धुम्रपान करता है।
2. Passive धूम्रपान – जिसमें दूसरे व्यक्ति के धूम्रपान के कारण उसके आस-पास मौजूद व्यक्ति के शरीर में धूम्र प्रवेशित करता है। ऊपर लिखित दोनों तरीकों से धमनी में मेद और रक्त के ग्रथित होने की प्रक्रिया को बल मिलता है जिससे धमनी प्रतिचय होता है। - शय्याधीन रहना – (पक्षाघात, गर्भिणी अवस्था अथवा दुर्घटनावश या शस्त्रकर्म उपरान्त अस्पताल में पड़े रहना इत्यादि)। आस्यसुखं अर्थात् लगातार एक ही जगह पर बैठे रहना, बार-बार या अधिक काल तक रेल यात्रा या विमान यात्रा करना।
- निदान परिवर्जन – पूर्व वर्णित निदानों का त्याग करना।
- शमन चिकित्सा – औषधियों द्वारा प्रकुपित दोषों का शमन करना जैसे त्रिफला, गुग्गुल आरोग्यवर्धनी वटी, सुवर्ण माक्षिक भस्म आदि।
- शोधन चिकित्सा
(क) रक्तमोक्षण (Blood Letting) - जलौका द्वारा स्थानिक अवरोध की चिकित्सा।
(ख) विरेचन (Purgation)
(ग) बस्ति (Eulma) - मानस चिकित्सा – प्राणायाम, योगासन। अधिक जानकारी एवं उपचार के लिए आप हमारे क्लिनिक – हिमान आयुर्वेदा क्लिनिक ( Himan Ayurveda Clinic) , 18 , तल्लीताल बाजार ( गंगा स्टोर के सामने) , तल्लीताल , नैनीताल में संपर्क कर सकते हैं।
- ईमेल द्वारा संपर्क – himanayurveda@gmail.com
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